Tuesday, July 1, 2008

मेरे हाँथ खज़ाना लग गया !

आज सुबह कि बात है में अपनी आंटी से अपने ब्लॉग के बारे में ही बातें कर रही थी. इतने में मेरी नज़र कमरे के ऐसे कोने पर पड़ी जहाँ सिर्फ धूल ही धूल दिख रहा था. सोचा कुछ तो होगा वहां. मैंने भी थोडी मशक्कत के बाद धुल मिटटी झाड़ कर देखा तो बहुत सारी किताबें मिली. आंटी बोली ," अरे ये क्या कर रही हो. वैसे भी बहुत धूल है. छोडो तुम !"
में तो मानने से रही. एकएक कर सारी किताबें देखने लगी. पहले तो उसमें चेतन भगत के दो उपन्यास थे और तीसरा था रोबिन कुक का ' मोरटल फीअर ' देख के ही मन खुश हो गया. मेरे पास कुछ तो था नया पढने को. उसके बाद मुझे जो मिला वोह में अपने स्वप्न में भी नहीं सोच सकती थी कि में पढ़ पाउंगी.



मुझे मिली जयशंकर प्रसाद जी कि " कामायनी"जिसमें उनकी कालजयी रचनायें थी. उसी कि कुछ पंक्तियाँ में आपके समक्ष पेश कर रही हूँ. यही रचना मैंने सबसे पहले पढ़ी. उसके बाद मुझे यशपाल जी का ऐतिहासिक उपन्यास " अमिता " दिखा फिर मैंने मैथिलीशरण गुप्त जी द्वारा लिखा गया " साकेत " भी देखा.

मैंने इन सब के नाम सिर्फ अपनी स्कूल में सुन रखे थे और बस इनकी कुछ कहानियाँ पढ़ी थीं. आज जब मेरे हाँथ में ये बेहतरीन रचनाएँ थी तो मेरे लिए इससे बड़ी ख़ुशी कि बात कुछ और नहीं थी. मेरी आंटी ने अपने म.ऐ में ये सब पढ़ा था. खैर मुझे तो काफी कुछ मिल गया. उसी का एक अंश प्रस्तुतु है. शायद आप सब कि याद भी ताजा करा दे.


जयशंकर प्रसाद जी मेरे पसंदीदा लेखकों में से एक हैं !


स्वप्न - जयशंकर प्रसाद

संध्या अरुण जलज केसर ले अब तक मनन थी बहलाती ,
मुरझा कर कब गिरी तामरस, उसको खोज कहाँ पाती !
क्षितिज भाल का कुमकुम मिटता मलिन कालिमा के कर से,
कोकिल की काकली वृथा ही अब कलियों पर मंडराती !

कामायनी कुसुम वसुधा पर पड़ी , न वह मकरंद रहा;
एक चित्र बस रेखाओं का, अब उसमें है रंग कहाँ !
वह प्रभात का हीनकाल शशि, किरण कहाँ चांदनी रही,
वह संध्या थी, रवि शशि तारा ये सब कोई नहीं जहाँ !

"जीवन में सुख अधिक कि दुःख, मन्दाकिनी कुछ बोलोगी?
नभ में नखत अधिक, सागर में या बुदबुद हैं गिन दोगी?
प्रतिबिम्ब हैं तारा तुम में, सिन्धु मिलन को जाती हो,
या दोनों प्रतिबिम्ब एक के इस रहस्य को खोलोगी !"

6 comments:

डॉ .अनुराग said...

कमाल है आप कामायनी भी पढ़ लेती है ,पढ़कर सुखद आश्चर्य हुआ......ओर हिन्दी में लिखा देख कर खुशी भी......

Power of Words said...

haan likhti rahungi. jitna ho sake utna padh rahi hoon. time pass karna hai

PD said...
This comment has been removed by the author.
PD said...

बहुत खूब.. कामायनी तो कालजयी रचना है और तुम्हारे हाथ दूसरी किताबें जो लगी हैं वो भी किसी से कम नहीं है.. शायद मैंने आज से 6-7 साल पहले पढी थी ये सारी किताबें.. पढो और अपने खाली समय का सदुपयोग करो.. और ज्यादा टेंसन मत लो एडमिशन को लेकर..

amit dwivedi said...

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