Monday, May 26, 2008

प्रकृति के साथ

हमेशा से मेरा प्रकृति के साथ काफी लगाव रहा है. प्रकृति में जो भी परिवर्तन आता है उससे में काफी प्रभावित होती हो हूँ.

शाम का समय था , अभी जमशेदपुर में गर्मी का इतना प्रकोप नहीं पड़ा है. बारिश की फुहारों ने तापमान को सामान्य रखा है. आज भी वैसे ही , धीमे से ठंडी हवा चल रही है. में अपने बगीचे में कुर्सी लगा कर बैठ गयी.यूँ तो रोज़ मैं अपना बगीचा देखती हूँ पर आज न जाने कैसे, मेरी आँखों में एक चमक सी आ गयी. आसमान साफ था. बिलकुल नीला दिख रहा था. मेरे चारों और रंग ही रंग था . संसा लगा की में जिस चोटी सी दुनिया में बैठी हूँ वहाँ भी मेरी " रंग- भरी " दुनिया दिखती है. उसमें कहीं सूरज मुखी का वो पीला रंग, जीनिया की रंग बिरंगी क्यारियाँ, चंपा के फूल, जूही की मन मोहक खुशबू, पत्तों का हलचल, पक्षियों का कलरव सब कुछ मुझे मानो मंत्र मुग्ध कर गया हो.उसमें सूरज मुखी मुझसे नज़रें चुरा रही थी. ऐसा लग रहा था मानो एक नयी नवेली दुल्हन अभी-अभी थोडा शर्म त्याग कर घुल-मिल रही है. थोडी सी झिझक और थोडा सा खुलापन. मुझे तो बहुत मज़ा आ रहा था. इतने में , आम का एक पत्ता मेरे ऊपर आ गिरा. मेरी नज़र ऊपर पड़ी तो देखा की एक कौवा टहनी हिला रहा था. बड़ी मुश्किल से मैंने उसी जगह पर गौर किया और देखा की एक छोटा सा आम वहीं से लटक रहा है. "आह!! एक आम तो दिखा," मैं मॅन ही मॅन सोच कर मुस्कुरायी.. वरना इस बार तो हमारे पेड़ में एक भी आम नहीं हुआ. उस एक फल को देख कर मैं खुश हो गयी. मुझे आम जितना खाना पसंद नहीं उतना पेड़ से तोड़ना पसंद है.

घास पे चलते हुए एक कीडे को देख ही रही थी की अचानक मुझे अपनी दुनिया में वापस आना पड़ा.मेरे बगल वाले घर में एक गाना चल रहा था-
" यूँ ही चला-चल रही, यूँ ही चला-चल राही,
जीवन गाडी है समय पहिया ......."
क्या सटीक गाना था मेरे लिए. पता नहीं इस इस समय में यही गाना बजने का मतलब क्या हो सकता है? लगता है, ईश्वर की महिमा है. मुझे एहसास हुआ कि इस बगीचे के चक्कर में मैंने अपने पैंतालीस मिनट बर्बाद कर दिए. मुझे कुछ पढ़-लिखना भी था. प्रकृति का तो यही खेल है. उनकी ज़िन्दगी वैसे ही चलती रहेगी और मेरी भी चलती रहनी चाहिए.
पर जितनी भी देर मैं वहाँ थी, मैं एक दूसरी ही दुनिया में थी. एक सुकून सा मिला मुझे. प्रकृति से प्रेरित हो kar मैंने ये लिखा है. ऐसे तो बगीचे और फूलों कि बात जब आती है तो हरीवंश राय बच्च्चन जी कि कविता- ' जो बीत गयी वो बात गयी ', कि कुछ पंक्तियाँ याद आती है-
मधुबन के आँगन को देखो.........
...............................
पर देखो इन सूखे फूलों पर मधुबन कब शोक मनाता है?
जो बीत गयी वो बात गयी.

3 comments:

डॉ .अनुराग said...

होता है कई बार गाने भी आपके मूड का साथ देते है.......इन्सान कितना ही technologically ऊपर उठ जाये,प्रकति की एक अपनी जगह है.....
aap ye word verification hata de...

PD said...

हां.. डा. साहब सही कह रहें हैं.. पहले तो तुम ये वर्ड वेरिफिकेशन हटाओ.. बहुत दिक्कत होती है कमेंट करने में.. :)

क्षितीश said...

hi... आपके हिंदी के इस पोस्ट के लिए हिंदी में ही टिपण्णी सही रहेगी.. प्रकृति से जुडाव ही तो वो चीज़ है जो आपको जीवन के ढंग बिना कहे भी समझा जाती है... जुडे रहिये. हाँ एक बात तो आपने अपनी पोस्ट में बताई ही नहीं, पेड़ से आम कैसे तोड़ लेती हैं आप...???